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सोमवार, 27 दिसंबर 2010

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत। पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।।

* साहिबजादे बाबा फतेह सिंह व जोरावर सिंह बने मिसाल

* गुरु गोबिंद सिंह जी के साहिबजादों की शहादत पर विशेष

 भारत वर्ष पर पठानों व मुगलों ने कई सौ साल तक राज किया। उन्होंने अपने राज की मजबूती व इस्लाम धर्म को भारत के कोने-कोने तक फैलाने के लिए हिंदुओं पर जुल्म करने शुरू कर दिए। औरंगजेब ने तो जुल्म करने की सभी हदें पार कर दी। हजारों मंदिर गिरा दिए गए। हिंदुओं को घोड़ी पर चढ़ना व पगड़ी बांधना निषेध कर दिया और एक खास टैक्स जिसको जजिया टैक्स कहा जाता था। हिंदु कौम में फूट व निर्बलता के कारण इन जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था। यहां तक कि राजपूतों ने अपनी बेटियों के रिश्ते भी मुगल राजाओं से शुरू कर दिए।

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत।

पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।।

सिख धर्म के दसवें गुरु साहिब गुरु गोबिंद सिंह जी ने यह महसूस किया कि निर्बल हो चुकी हिंदु कौम में अलग से जीने की जागृति पैदा की जाए। उन्होंने 1699 में बिसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में अमृत पान करा कर एक अनोखी कौम तैयार की। जिसका नाम खालसा पंथ रखा। मई-जून 1704 में दिल्ली की सेना, सरहिंद व लाहौर सूबे की सेना व बाईधार के पहाड़ी राजाओं ने मिलकर गुरु गोबिंद सिंह जी पर आक्रमण कर दिया। सिखों ने पूरी ताकत से मुकाबला किया व सात महीने तक आनंदपुर साहिब के किले पर कब्जा नहीं होने दिया। आखिर में मुसलमान शासकों ने कुरान की कसम खा व हिंदु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरु जी से किला खाली कराने के लिए विनती की। 20 दिसंबर 1704 की रात को किला खाली कर दिया गया और गुरु जी अपनी सेना के साथ रोपड़ की तरफ कूच कर गए। सुबह जैसे ही मुगल सेना को पता चला, उन्होंने कसमें तोड़ते हुए गुरु जी पर हमला कर दिया। लड़ते-लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए व चमकौर गढ़ी में 37 सिखों व गुरुजी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला। यह संसार की अदभुत जंग थी क्योंकि 80 हजार मुस्लमानों से केवल 40 सिखों का मुकाबला था। जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरु जी ने 5-5 सिखों का जत्था बनाकर मैदाने जंग में भेजने शुरू कर दिए। बड़े साहिबजादे भी लड़ाई में गुरु जी की आज्ञा लेकर शामिल हुए व 17 और 15 साल की छोटी उम्र में ही युद्ध में जोहर दिखा कर शहीद हो गए। लेकिन सिखों ने शाम तक कब्जा नहीं होने दिया। गुरु साहिब जी के तीरों के आगे मुगल सेना असहाय बनी रही। रात को पांच सिखों ने गुरु जी के पांच प्यारों की हैसियत में गढ़ी को छोड़ कर चले जाने का हुकम दिया। गुरु जी हुकम मानते हुए ताड़ी मार कर व ललकार करके माकीवोड़ को चले गए।

दूसरी तरफ सिरसा नदी पार करते समय गुरु जी की माता गुजरी जी व दोनों छोटे साहिबजादे बिछड़ गए। गुरु जी का रसोईया गंगू ब्राह्मण उन्हें अपने गांव सहेड़ी ले गया। रात को उसने माताजी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली। सुबह माता जी के पूछने पर आग बबूला हो गया और उसने गांव के चौधरी को गुरु जी के बच्चों के बारे में बता दिया। दूसरे दिन गंगू व चौधरी ने मोरिंडा के हाकिम को भी बता दिया। हाकिम ने सरहिंद के नवाब के पास साहिबजादों व माता जी को भेज दिया। नवाब ने उन्हें ठंड़े बुरज में कैद कर दिया। दो तीन दिन तक उन बच्चों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया गया। जब वे ना माने तो उन्हें डराया धमकाया गया। ऊंचे पदों व रिश्तों के प्रलोभन भी दिए गए। लेकिन साहिबजादे ना डरे, ना लोभ में अपना धर्म बदलना स्वीकार किया। सुचानंद दिवान ने नवाब को उकसाया कि यह सांप के बच्चे हैं इन्हें कत्ल कर देना चाहिए। अंत में काजी बुलाया गया जिसने जिंदे ही दीवार में चिन कर मार देने का फतवा दे दिया। उस समय दरबार में मलेर कोटले का नवाब शेर मुहम्मद खां भी उपस्थित था। उसने इस फतबे का विरोध किया और दरबार से उठ कर चला गया। 27 दिसंबर 1704 में फतवे अनुसार बच्चों को दीवारों में चिना जाने लगा। जब दीवार घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काटा गया ताकि दीवार टेड़ी न हो। जुल्म की हद हो गई। सिर तक दीवार के पहुंचने पर शाशल बेग व वाशल बेग जलादों ने तलवार में शीश कर साहिब जादों को शहीद कर दिया। उनकी शहादत की खबर सुन कर दादी माता भी प्रलोक सिधार गई। लाशों को खेतों में फेंक दिया गया। सरहिंद के एक हिंदु साहूकार जी रोडरमल को जब इसका पता चला तो उसने संस्कार करने की सोची। उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए उतनी जगह पर सोने की मोहरे बिछानी पड़ेगी। कहते हैं कि उसने घर के सब जेवर व सोने की मोहरें बिछा करके साहिबजादों व माता गुजरी का दाह संस्कार किया। संस्कार वाली जगह पर बहुत संदर गुरुद्वारा जोती स्वरूप बना हुआ है। जबकि शहादत वाली जगह पर भी एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा सशोभित है।


हर साल दिसंबर 25 से 27 दिसंबर तक बहुत भारी जोड़ मेला इस स्थान पर (फतेहगढ़ साहिब) लगता है जिसमें 15 लाख श्रद्धालु पहुंच कर साहिबजादों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। 6 व 8 साल के साहिबजादे बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह जी दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए। वे दुनिया में अमर हो गए। साहिबजादों की शहीदी पर एक मुसलमान लेखिक ने कितना सुंदर वर्णन किया है- सद साल और जी के भी मरना जरूर था, सर कौम से बचाना यह गैरत से दूर था। मगर गुलाम मानसिकता के रोगी आज के इंडियन अपनी गरिमा और गौरव को भूलों मत याद रखो।

2 टिप्‍पणियां:

  1. @ अंकित जी ,
    मेरा सुझाव है की आप हिन्दू ब्लोगर असोसिएसन बहुत ही जल्द बनाए . इस की बहुत ही आवश्यकता है .
    आशा करता हू की आप गौर करेंगे . आप इन कुछ एक व्यक्तियों में है जो ये सफलतापूर्वक कर सकते है . यही सुझाव अमित शर्मा जी को भी दूंगा . आप लोग ही ये कर सकते है

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आप जैसे चाहें विचार रख सकते हैं बस गालियाँ नहीं शालीनता से