भारत के विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम :हिंदुत्व के प्रति दुर्भावना
पिछले दिनों एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में किसी विषय का पाठ्यक्रम तैयार करने पर मीटिंग हो रही थी। उसमें एक बिंदु था-भारत में मानवतावादी परंपरा। एक प्रोफेसर ने प्रस्तावित किया कि इसके अंतर्गत लिखा जाए, 'बौद्ध, जैन, इस्लामी तथा सूफी विचार'। दूसरे प्रोफेसर ने चिता जताई, 'तब तो हिंदू भी लिखना पड़ेगा?' वह हिंदू जोड़ना नहीं चाहते थे। तब प्रस्तावक प्रोफेसर ने उत्तर दिया, 'हिंदू धर्म या विचार जैसी कोई चीज नहीं थी।' दूसरे प्रोफेसर ने फिर आशका व्यक्त की, 'मगर बौद्ध धर्म से पहले भारत में रहे चितन-विचार का भी तो उल्लेख करना होगा?' पहले प्रोफेसर ने बेफिक्री से कहा, 'अच्छा तो लिख दो, अर्ली इंडिया।' इस प्रकार, भारत में मानवतावादी परंपरा का क्रम इस प्रकार लिखा गया, 'अर्ली इंडियन, बुद्धिस्ट, जैन, इस्लामिक एंड सूफी।' अर्थात, जो स्थान हिंदू या सनातन धर्म को देना था वहां काल-सबधी नाम दिया गया, जबकि दूसरे धमरें वाले स्थान में धर्म-सबधी नाम ही दिए गए। वहां मेडिवल, लेटर-मेडिवल या प्री-मॉडर्न आदि लिखकर 'अर्ली' इंडिया वाला काल-क्रम नहीं रखा गया। अंतत: वही पाठ्यक्रम बन गया। पाठ्यक्रम समिति में देश भर से शामिल एक दर्जन प्रोफेसरों को इसमें कुछ भी अटपटा या दुराग्रही न लगा। भारत में हिंदू-विरोधी बौद्धिकता के दबदबे का यह नमूना आज का है।
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज भारत के उच्च शिक्षार्थी भी अपने ही देश के दर्शन, इतिहास और सस्कृति से निपट अनजान हैं। यह इतने लबे समय से चल रहा है कि बड़ी कुर्सियों पर विराजमान अधिकारी, बुद्धिजीवी और प्रोफेसर भी नितात विखंडित दृष्टि रखते हैं। प्राय: विद्यार्थियों को इतिहास पढ़ाने के बजाय उनसे इतिहास छिपाया जाता है, ताकि भोले छात्रों को एक विशेष मतवाद में दीक्षित किया जा सके। उदाहरण के लिए एक इतिहास पुस्तक में बिना कोई जानकारी दिए वेदों के प्रति दुर्भावना भरी गई है। पुस्तक में जगह-जगह लिखा है, 'वेद कर्मकाडीय पुस्तक है', तो कहीं यह कि 'वेदों के प्रभुत्व को चुनौती दी गई।' मानो, वेद कोई दुष्ट सरदार थे! इसी पुस्तक के एक अध्याय का शीर्षक है, 'महाभारत का आलोचनात्मक अध्ययन', जिसमें चुन-चुन कर ऐसी कथाएं विचित्र भाव से दी गई हैं जिससे महाभारत का कुछ ज्ञान नहीं होता। केवल उसके प्रमुख पात्रों, तत्कालीन समाज और विचारों के प्रति एक वितृष्णा बनती है।
भारतीय सभ्यता-सस्कृति के प्रति ऐसे इतिहासकारों का दुराग्रह तब स्पष्ट हो जाता है जब वे अरब-इस्लाम का इतिहास लिखते हैं। उदाहरण के लिए विश्व इतिहास की एक पाठ्य-पुस्तक में एक-तिहाई सामग्री बाकायदा इस्लाम और उसके विस्तार पर दी गई है। श्रद्धा, प्रशसा से ओत-प्रोत उस भारी भरकम सामग्री में आरंभ में ही साफ लिखा है कि हमारी समझ पैगंबर की जीवनी, कुरान और हदीस पर आधारित है। अर्थात, जिस रूप में इस्लामी किताबें अपने को पेश करती हैं, प्रोफेसरों ने उसे आदर एव अतिरिक्त अनुशसा भाव से विद्यार्थियों तक पहुंचा दिया है। कहीं उस 'आलोचनात्मक अध्ययन' का नामो-निशान नहीं, जो महाभारत के लिए लिख कर घोषित किया था। 'वेदों के प्रभुत्व' की तरह कहीं कुरान के प्रभुत्व पर आक्रोश प्रेरित करने का जतन भी नहीं। उलटे प्रोफेसरों ने दर्जनों तस्वीरों, रेखाचित्रों, मानचित्रों के माध्यम से इस्लाम की खूबियों, महानता और शान का इतना लबा बखान किया है कि लगता है कि यह विश्व इतिहास की पाठ्य-पुस्तक नहीं, बल्कि किसी को इस्लाम में मतांतरित करने के लिए लिखा गया तबलीगी साहित्य हो! इतिहासकारों की यह पूरी श्रद्धा-भगिमा बाबर के बारे में इस उक्ति से झलक सकती है कि उसने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। मानो किसी बगीचे या पुस्तकालय की नींव रखने जैसा कार्य किया हो। पुस्तक में इस्लामी साम्राज्य विस्तार के लिए विभिन्न देशों पर चढ़ाई, सदियों तक हुए नरसहार, जिहाद, जबरन मतांतरण आदि मोटी बातों तक का उल्लेख नहीं है।
ये प्रोफेसर कोई चुने हुए अपवाद नहीं हैं। भारत में समाज विज्ञान और मानविकी विषयों में इसी बौद्धिकता का एकाधिकार है। इसीलिए जो प्रोफेसर हिंदू ग्रंथों, शास्त्रों, नीतिकारों, राज्य व्यवस्था आदि पर शत्रुता भाव से लिखते हैं वही इस्लामी किताबों, विचारों, पैगबर, उनके युद्धों, प्रसगों, राज्य व्यवस्था, रिवाजों और साम्राज्य विस्तार आदि पर लिखते हुए एकदम उलट कर श्रद्धा और स्वीकृति की मूर्ति में बदल जाते हैं। नि:सदेह यह कोई विद्वत लेखन नहीं कि दो प्रकार के ग्रंथों, विश्वासों, राज्य व्यवस्थाओं के बारे में दो विपरीत मानदंड अपनाए जाएं।
समाज विज्ञान शिक्षा को मतवादी प्रचार बना देने में राजनीति की बड़ी भूमिका है। इसीलिए बुद्धिजीवी खुले विचार-विमर्श और मुक्त चितन के कट्टर विरोधी हैं। वे देशभक्तिपूर्ण या हिंदू भाव से लिखे अच्छे लेखन को भी निदित करते हैं। उनमें स्वदेशी भाव की पुस्तकों, लेखों के प्रति तीखी नाराजगी रहती हैं। वे मौलिक शोध या लेखन से अधिक 'तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, पार्टनर' वाली घातक मानसिकता में जीते हैं। कोई लेखन, विश्लेषण उन्हें नहीं रुचता, यदि वह उनके लिए राजनीति सगत न हो।
इस चिताजनक स्थिति को पहचानना और परखना जरूरी है। हमारे देश में प्रचलित समाज विज्ञान पुस्तकों की मूल्यवत्ता तुरंत समझ में आ जाएगी, यदि दूसरे उन्नत देशों, समाजों की इतिहास, राजनीति सबधी पाठ्य-पुस्तकों से इसकी तुलना करें। तब साफ झलकेगा कि हमारे देश का समाज विज्ञान मुख्यत: अपने ही देश के धर्म, सभ्यता, सस्कृति के प्रति वितृष्णा भरने का काम करता है। हर हाल में, समाज विज्ञान और मानविकी विषयों की शिक्षा को सचमुच हितकारी बनाने के लिए इसे हिंदू विरोधी मतवाद की गिरफ्त से मुक्त करना आवश्यक है।
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