फ़ॉलोअर

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

जम्मू कश्मीर समस्या :केवल कुछ मिथक

jammu kashmeer state
jammu kashmeer state
पिछले ६५ वर्षों में जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में इतने सारे मिथक गढ़े गए हैं कि शेष भारत के लोगों कि इस राज्य के सम्बन्ध में बनी हुई समझ इन मिथकों के आधार पर ही है और साधारण भारतीय को तथ्य कम पता है मिथक ज्यादा पता हैं।

सर्वप्रथम तो राज्य के लिए "कश्मीर " शब्द का प्रयोग करना ही गलत है राज्य का नाम "जम्मू और कश्मीर " है और "कश्मीर घाटी" क्षेत्रफल के अनुसार राज्य का केवल १५% ही हैं और राज्य के २२ जिलों में से मात्र 10 ही कश्मीर घाटी में आते हैं। राज्य का कुल क्षेत्रफल 222,236 वर्ग किलोमीटर है जिसमे से भारत के नियंत्रण में 101387 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से कश्मीर घाटी 15,948 वर्ग किलोमीटर अर्थात १५.७३ प्रतिशत , जम्मू 26,293 वर्ग किलोमीटर अर्थात २५.९३ % और लद्दाख 59,146 वर्ग किलोमीटर अर्थात ५८.३३ % है। अतः राज्य को कश्मीर मानना ही मिथक है और गलत भी है राज्य को कश्मीर नहीं अपितु "जम्मू -कश्मीर " कहना चाहिए।


दूसरा बड़ा मिथक है "विवाद" शब्द का प्रयोग करना क्यूंकि यह कोई विवाद है ही नहीं। जम्मू कश्मीर राज्य का भारत में विलय पूर्ण हो चूका था औऱ जम्मू कश्मीर के भारत में विलय और अन्य रियासतों के भारत के विलय में वैधानिक रूप से कोई भी अंतर नहीं था इसलिए विवाद शब्द का प्रयोग ही अनुचित है।


एक समाचार चैनल ABP NEWS पर एक कार्यक्रम श्रंखला "प्रधानमंत्री ' के अंतर्गत एक कड़ी कश्मीर पर आधारित थी परन्तु इसने भी तथ्यहीन मिथकों को बढ़ावा देने का कार्य ही किया है और इतिहास के सम्बद्ध में भ्रांतियां उत्पन्न कि गयी हैं । इसमें सबसे पहला झूठ तो ये बोला गया कि कश्मीर के विलय पूर्व के शासक महाराजा हरिसिंह एक निरंकुश और अलोकप्रिय शासक थे और पुरे राज्य में उनके विरुद्ध विद्रोह कि भावना थी। उसमे यह भी बोला गया कि महाराजा हरिसिंह "राज्य कि संपत्ति , निजी संपत्ति और सार्वजनिक संपत्ति ' में कोई अंतर नहीं समझते थे और उन सबका मनमाना उपयोग करते थे। परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ये धारणाएं पूर्णतयः आधारहीन सिद्ध होती है । महाराजा हरीसिंहकि सहानुभूति स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ थी और इसीलिए अंग्रेज उनको पसंद नहीं करते थे। इसके अतिरिक्त महाराजा हरिसिंह को इस बात का भी आभास था कि एक न एक दिन लोकतंत्र , राजतन्त्र का स्थान ले ही लेगा इसलिए उन्होंने १९३३ से ही मतदान के द्वारा जनप्रतिनिधियों के चुनाव कि व्यवस्था प्रारम्भ कर दी थी और चुनी गयी सभा को प्रजा परिषद् कहा जाता था। जाहं तक बात महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध विद्रोह कि भावना कि है तो वो विद्रोह कहसमीर घटी के कुछ कश्मीरीभाषी सुन्नी मुस्लिमों के मध्य था और उसमे से अधिकांश विद्रोही अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पढ़े हुए थे। इस विद्रोह का आधार पंजाब राज्य था और यह ब्रिटिश राज्य के द्वारा प्रायोजित था। इस विद्रोह का उद्देश्य कश्मीर के प्रधानमंत्री पद अपर किसी अंग्रेज को बैठना और महाराजा हरिसिंह से गिलगित का भूभाग "ब्रिटिश इण्डिया " को ९९ वर्षों के लिए लीज पर दिलवाना था अरु इन उद्देश्यों कि पूर्ति के साथ ही पूरा विद्रोह समाप्त हो गया था। भारत कि स्वतंत्रता के समय राज्य में राजा के विरुद्ध विद्रोह कि कोई भी भावना नहीं थी।

कश्मीर के सम्बन्ध में एक बड़ा मिथक यह है कि भारत कि स्वतंत्रता के समय समस्त देशी रियासतों को भारत के साथ जाने का या पकिस्तान के साथ जाने का या स्वतन्त्र रहने का विकल्प मिला हुआ था। यह पूर्णतयः आधारहीन बात है। रियासतें सम्प्रभुता संपन्न राष्ट्र नहीं थीं और इसलिए उनके पास स्वतन्त्र रहने का कोई विकल्प नहीं था। उनके पास भारत या पकिस्तान में से किसी एक के पास ही जाने का विकल्प था और वो भी केवल उस राष्ट्र के साथ जाने का जिसके साथ उस रियासत कि "भौगोलिक निरंतरता " हो अर्थात जिस राष्ट्र के साथ के साथ उस रियासत कि भौगोलिक सीमा मिलती हो। इस विलय का पूरा अधिकार उन राज्यों के शासकों को दिया गया था। इन्ही नियमों के कारण बलूचिस्तान  का भारत में और जूनागढ़ तथा हैदराबाद का पकिस्तान में विलय नहीं हो पाया था। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रहने का भी विकल्प नहीं था क्यूँकि ये नियम जो कि "भारत कि स्वतंत्रता के अधिनियम " का हिस्सा थे वो ब्रिटिश संसद ने पारित किये थे। हैदराबाद के नवाब ने स्वतन्त्र राष्ट्र कि मान्यता के लिए ब्रिटेन सहित आठ राष्ट्रों के पास निवेदन भेजा था , यदि स्वतन्त्र रहने का विकल्प होता तो कम से कम ब्रिटेन तो स्वयं के बनाये हुए नियम का सम्मान करते हुए उस निवेदन को स्वीकार कर सकता था परन्तु ऐसा नहीं हुआ क्यूँकि ऐसा कोई विकल्प रियासतों के पास था ही नहीं।

एक मिथक यह भी है कि महाराजा हरिसिंह अपनी रियासत का भारत में विलय करना ही नहीं चाहते थे। यह भी एक मिथक है महाराजा हरिसिंह प्रारम्भ से जम्मू - कश्मीर रियासत का भारत में विलय करना चाहते थे। परन्तु उस समय शेख अब्दुल्ला महाराजा के कारागार में था और भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेरु के राष्ट्रहित के स्थान पर शेख अब्दुल्ल से अपने निजी संबंधों को अधिक महत्त्व दिया था और महाराजा हरिसिंह के समक्ष शर्त रख दी थी की जम्मू - कश्मीर का विलय तभी होगा जब की राज्य की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जायेगी |जिस अमे कबायली लड़ाके और  पकिस्तान की सेना ने जम्मू - कश्मीर पर आक्रमण कर दिया था उस समय भी नेहरु ने अपनी हारतें नहीं छोड़ी थी और महाराजा के किसी भी सन्देश का उत्तर नहीं दिया था | अंततः जब महाराजा में शेख अब्दुल्ला को स्वतन्त्र करके उसे राज्य की सम्पूर्ण सत्ता सौप दी उसके बाद ही नेहरु ने अपना दूत महाराजा के पास विलय परते के साथ भेजा था |

"जम्मू - कश्मीर " राज्य के विलय के सम्बन्ध में  यह भी एक मिथक है कि जम्मू कश्मीर का विलय सशर्त और बाकी कि रिसरों के विलय से अलग था । २६ जनवरी १९४७ को जम्मू कहसमीर के महाराजा ने भी उसी विलय पत्र में हस्ताक्षर किये थे जिसमे कि अन्य रियासतों के शासकों ने और उसी विलय पत्र पर भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने हस्ताक्षर करते हुए लिखा था "।मैन एतद्वारा इस विलय को स्वीकार करता हूँ " । अतः वैधानिक रूप से भारत के अंदर जो स्थिति भारत में विलय कि गयी अन्य रियासतों कि थी वही जम्मू कश्मीर कि भी है। 

एक मिथक यह है कि जम्मू-कश्मीर कि स्थिति इसलिए अन्य रियासतों से अलग है क्यूंकि जम्मू - कश्मीर कि संविधान सभा बनी थी और उसका अलग संविधान बना था। परन्तु संविधान सभा और संविधान केवल जम्मू -कश्मीर ही नहीं अपितु समस्त रियासतों के लिए बना था और उसी संविधान के द्वारा समस्त रियासतों ने भारतीय संविधान का अपने क्षेत्र में विस्तार किया था और ऐसा ही जम्मू कश्मीर कि संविधान सभा ने भी किया था।

एक मिथक यह है कि नेहरू ने "केवल जम्मू कश्मीर रियासत के लिए " जनमत संग्रह कि बात कि थी।  नेहरू ने जनमत संग्रह कि बात समस्त रियासतों के लिए कि थी  और समस्त रियासतों के अंदर वहाँ कि संविधान सभाओं के माध्यम से यह जनमत संग्रह करवाया गया था और यही प्रक्रिया "जम्मू - कश्मीर " राज्य में भी दोहरायी गयी थी। जम्मू कश्मीर राज्य ने २६ जनवरी १९५७ को अपना संविधान लागू किया था और उसके अनुसार
धारा ३ -जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।
धारा ४ - जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्थ वह भू-भाग है जो 15 अगस्त 1947 तक राज्य के राजा के आधिपत्य की प्रभुसत्ता में था।
इसी संविधान की धारा-147 में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धारा- 3 व धारा-4 को कभी बदला नहीं जा सकता।
अतः जिस जनमत संग्रह कि बात कई कथित बुद्धिजीवी और अलगाववादी कहते रहते हैं वह तो १९५७ में हो चुका है और उसके अनुसार कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

कुछ लोगों ने यह मिथक गढ़ा है कि जम्मू - कश्मीर कि स्थिति विवादित है कि क्यूंकि नेहरू इस बिंदु को संयुक्त राष्ट्र  संघ के समक्ष ले गये थे परन्तु यह भी भ्रम है।  नेहरू संयुक्त राष्ट्र में भारत पर पाकिस्तान के आक्रमण के बिंदु पर गए थे न कि जम्मू - कश्मीर के स्थिति के बिंदु पर और इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र भी जम्मू - कश्मीर को विवादित विषयों कि सूचि से निकाल चुका  है। 
एक मिथक यह भी  है कि धारा ३७० के कारण जम्मू-कश्मीर कि स्थिति विवादित है । जिस समय पुरे देश में संविधान लागू किया जा रहा था और समस्त रियासतें अपनी संविधान सभाओं के माध्यम से विलायक अनुमोदन करने भारत के संविधान को अपने क्षेत्र में लागू कर रही थीं उस समय जम्मू कश्मीर राज्य में युद्ध चल रहा ठ और वहाँ अपर उस समय निर्वाचन सम्भव नहीं था। अतः धारा  ३७० के द्वारा जम्मू कश्मीर राज्य को इस कार्य को करने के लिए कुछ अतिरिक्त समय दिया गया था।  यह संविधान कि एक मात्र धारा  है जिसमे या लिखा है कि यह अयस्थायी धरा है और जम्मू कश्मीर कि संविधान सभा ने १९५७ को वह कार कर भी दिया था जिसके लिए उसे अतिरिक्त समय दिया गया था बीएस दिल्ली कि केंद्र सरकार द्वारा उसका अनुमोदन ही शेष है।
ये तो कुछ वैधानिक और ऐतिहासिक मिथक थे परन्तु कुछ वर्त्तमान कि स्थिति को लेकर भी मिथक हैं।  कुछ लोगों को लगता है कि जम्मू - कश्मीर राज्य के निवासी भारत के साथ नहीं रहना चाहते हैं परन्तु यह भी के भ्रम है। कश्मीर के सभी अराजक तत्व और सभी आतंकवादी केवल "कश्मीरीभाषी सुन्नी मुस्लिम " समुदाय के लोग हिआँ जिनकी जनसंख्या राज्य में १५% से भी कम है और इनका प्रभुत्व केवल कश्मीर घाटी के पांच जिलों तक है । बाकी के राज्य के १७ जिले पूरी तरह से भारत के साथ और रास्ट्र भक्त हैं । कार्गिन का क्षेत्र भी मुस्लिम बाहुल्य है परन्तु वहाँ के लोगों ने कार्गिन युद्ध के समय भारतीय सेना के साथ हर सम्भव सहयोग किया था  । बाबा अमरनाथ कि यात्रा के यात्रियों के लिए भूमि दिए जेन के विरोध में जब अलगाववादी आंदोनल हुआ था तब भी उस आंदोनल का समर्थन केवल इन ५ जिलों ने और बाकी ने उस अलगाववादी आंदोलन का विरोध किया था।  अफजन गुरु कि मृत्यु पर भी विरोध प्रदार्शन या कर्फ्यू भी केवल पांच जिलों तक ही था। जितने भी अलगाववादी नाम  है केवल घाटी के ५ जिलों के ही हैं। भारत के अन्य प्रदेशों के निवासियों के मन में राज्य कि छवि टीवी देख कर बनती है परन्तु टीवी पर होने वाली चर्चाओं में भी केवल राज्य से सारे प्रतिनिधि घाटी से ही बुलाये जाते हैं।  अगर इन चर्चाओं में एक प्रतिनिधि घटी से १ जम्मू से और १ लद्दाख से बुलाया जाने लगे तो भारत तथा शेष विश्व के मष्तिष्क में जम्मू - कश्मीर के बारे में बनी हुई धारणाएं बदल जाएँगी।

ये जिन मिथकों कि बातें कि हैं ये अपने आप नहीं बन गए हैं।  इनको बनाया गया है प्रयत्न पूर्वक और संसाधनो का निवेश करके और यह कार्य किया है पश्चिमी देशों ने जिनके व्यापक हित हिअ जम्मू - कश्मीर राज्य को भारत से अलग करने में और क्यूंकि भारत कि इलेकट्रोनिक और प्रिंट प्रत्रकारिता पर भी अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिमी देशों का ही नियंत्रण है अतः भारत का मिडिया भी इन मिथकों को पोषित ही करता रहा है।

अतः इस समस्या को सुलझाने के लिए हमें यह समझना पड़ेगा कि जम्मू कश्मीर कि समस्या वास्तव में केवल सही सूचनाओं औऱ जानकारियों का आभाव है और मिथकों का गुच्छा है और इसे समाप्त करने के लिए सही तथ्यों का प्रचार करना पड़ेगा।  कम से कम अब कभी कश्मीर शामद का प्रयोग न करें "जम्मू -कश्मीर "तथा "कश्मीर  विवाद " के स्थान पर "जम्मू - कश्मीर समस्या" शब्द का प्रयोग करें।

5 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा जम्मू कश्मीर भारत का अभ्भिन अंग है ओर रहेगा चाहे अलगाववादी हो चाहे पाकिस्तानी हो इनका सर्व नाश निश्चित है।

    जवाब देंहटाएं
  2. Best Casinos in Michigan - MapyRO
    Find the best casinos in Michigan with MapyRO, the mobile 울산광역 출장마사지 app for driving directions, 전주 출장안마 reviews and more. See all of the 경산 출장안마 locations 의왕 출장안마 and hours of operation. 과천 출장마사지

    जवाब देंहटाएं

आप जैसे चाहें विचार रख सकते हैं बस गालियाँ नहीं शालीनता से